पेरियार रामास्वामी नायकर जिनकी अद्भुत नेतृत्व से तमिलनाडु में पिछड़ा वर्ग 70 प्रतिशत तक आरक्षण का लाभ उठा रहा है, पेरियार रामास्वामी नायकर के बाद उस मुहिम को आगे बढ़ाने वाले पेरियार ललई सिंह यादव जिन्होने सुप्रीम कोर्ट तक सच्ची रामायण के लिए अपनीक्षमता अकाट्य तर्कशील से जीत दर्ज किया। श्री राजेन्द्र यादव जिनके हंस को न पढ़ पाने वाला हिन्दी का मूर्धन्य विद्वान भी कुछ खोया महसूस करता हो को अस्तित्वविहीन साबित करने की क्षमता रखता है।
अंग्रेजी के एक विद्वान की लाईन में 1984 में पढ़ा था कि ‘‘It is better to reign hell than to be slave in haven’’ अर्थात स्वर्ग में गुलाम बनकर रहने की अपेक्षा नरक में शासक बनकर रहना बेहतर है। पूरी दुनिया दास प्रथा के विरुद्ध लड़ रही है। 1942 का स्वतंत्रता अन्दोलन अंग्रेजी दासता से मुक्ति का आंदोलन था ऐसे में यदि तुलसीदास जी लिखतें हों कि निरमल मन अहीर निज दासा और हम इस पर गर्व करें तो मुझे कुछ नहीं कहना है। भला तुलसी दास जी निरमल मन भगवान का दास ब्राह्मण को क्यों लिखें ? क्या उन्हें दास का मतलब नहीं पता था ? उन्हें जब ब्राह्मण को भुसूर बनाना था। ”पूजिय विप्र सकल गुणहीना“ लिखना था तो दास क्यों बनायें वे जानते थे कि दासता का पट्टा कुत्ते के गले में ही रह सकता है। लोमड़ी या भेडि़यें के गले में नहीं।
तुलसी दास जी ने श्री कृष्ण के वंशजों को लिखा है कि आभीर, यवन, किरात, खल स्वपचादि अति अधरूपजे। इसमें अहीर को नीच, अन्त्यज, पापी बताया है और वाल्मीकि जी ने युद्धकांड के 22वें सर्ग में स्पष्ट लिखा है कि जब राम ने लंका जाने हेतु सागर को समाप्त करने के लिए अपनी प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लिया तो सागर प्रकट होकर अपने भगवान राम को सनातन मार्ग न छोड़ने की सीख देते हुए वाण न छोड़ने का आग्रह करता है। जिस पर राम कहते हैं कि
तमब्रवीत् तदा रामः श्रणु में वरुणालय।
अमोघोडयं महाबाणः कस्मिन् देशे निपात्यताम्।।30।।
वरुणालय! मेरी बात सुनों। मेरा यह विशाल बाण अमोघ है। बताओं, इसे किस स्थान पर छोड़ा जाय। राम के इस सवाल पर महासागर ने कहा।
उत्तरेणावकाशोस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्।।32।।
उग्रदर्शन कर्मणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीर प्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम।।33।।
तैन तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोधः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः।।34।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात्।।35।।
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्।
नियातितः शरो यत्र बज्राशनिसमप्रभः।।36।।
कि ”प्रभो! जैसे जगत में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है। वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं, जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सब के सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मै नहीं सह सकता। श्री राम! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजये।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में राम ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया। वह वज्र और मशीन के समान तेजस्वी बाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस बाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरूभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भगवान राम ने अहीरों के देश पर बाण छोड़कर मरुस्थल बना दिया। जबकि अहीरों का राम से कोई अदावत या दुश्मनीं नहीं थी। इसलिए राम अहीरो के पुरखो के हत्यारे हैं। राम और कृष्ण में बड़ा फर्क है। कृष्ण ने आर्याे के देवता इन्द्र से युद्ध किया। ऋग्वेद आर्याे की प्राचीन पुस्तक है। ऋग्वेद में उल्लेख कि कृष्ण दानव थे और इन्द्र के शत्रु थे। (पढ़ें ऋग्वेद या इतिहासकार डी0डी0 कौशाम्बी की पुस्तक प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता पृष्ठ 148) कृष्ण ने अपने पूरे जीवन में कहीं मन्दिर नहीं बनाया पूजा नहीं किया, इन्द्र की पूजा बन्द कराया, यज्ञ नहीं किया और अपनी विद्वता का लोहा मनवा के स्वयं की अग्रपूजा हेतु विवश किया। उन्होंने प्रकृति (यमुना, कदम्ब, वृंदावन, गोवर्धन पर्वत और मूक पशुओं) की महत्ता से हमें अवगत कराया न कि पोंगापंथ में जीने की सीख दिया।